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व्यंग्य

हिंदी में मनहूस रहने की परंपरा

ज्ञान चतुर्वेदी


हिंदी साहित्य में गंभीर रहने पर विकट जोर है। साहित्य के स्तर से ज्यादा जोर मनहूसियत की मात्रा पर। आप अच्छा साहित्य रचें और ज्यों-ज्यों अच्छा रचते जाएँ, त्यों-त्यों और गंभीर होते चले जाएँ - हिंदी में यह अलिखित नियम-सा है। और बाकायदा इसे माना तथा सराहा जाता है। धीरे-धीरे हुआ यह है कि यह नियम इस कदर हिंदी साहित्य जगत पर काले कानून की तरह छा गया है कि सारा जोर गंभीर रहने पर हो गया है, साहित्य रचना प्रासंगिक नहीं रहा। आप रचें, न रचें या जैसा रचना हो रचें। बहुत से लोग यहाँ मात्र इसी कारण से बड़े पाए के साहित्यकार कहलाए जाने लगे क्योंकि उनमें गंभीरता कूट-कूटकर भरी थी। वे बचपन से ही मनहूसियत के शिकार थे, उदास रहते थे, झोले जैसा लंबा-सा मुँह लटकाए घूमते थे, गोष्ठियों में यूँ जाते थे, मानो किसी के उठावने पर पहुँचे हों - बस, इन्हीं कारणों से वे हिंदी के ख्यातनाम साहित्यकार हुए।

हिंदी साहित्यकार का एक विशिष्ट पोज है। आप हिंदी की किताबें उठाकर देखिए, यदि उसमें लेखक का फोटो छपा होगा, तो आप उसे देखकर मेरी बात समझ पाएँगे। हर लेखक मनहूसियत की सीमा तक गंभीर। वह न जाने कहाँ देख रहा है तथा न जाने क्या सोच रहा है - पर सोचते हुए नितांत गंभीर हैं, सो कोई ऊँची बात ही सोच रहा होगा, ऐसा जतला रहा है वह। हिंदी में मनहूसियत को ऊँचे चिंतन की निशानी मान लिया गया है। एक जमाने में हिंदी साहित्यकारों, विशेष तौर पर कवियों के बीच फोटो खिंचवाने का एक पोज बड़ा लोकप्रिय हुआ करता था, जिसमें वे अपनी ठुड्डी के नीचे हाथ के पंजे का सहारा देकर उदास आँखों से उस ओर देखकर फोटो खिंचाते थे, जिस ओर प्रायः फोटोग्राफर के स्टूडियो में कंघा-शीशा लटका रहता है। छायावादी कवियों में तो खैर यह अत्यंत लोकप्रिय पोज हुआ करता था, पर बाद के बहुत से प्रगतिशील मित्रों ने भी ऐसे गंभीर फोटो खिंचवाए और कविता, कहानी आदि के साथ छपवाए। अच्छी रचना के साथ ऐसा फोटो आम पाठक पर एक रुआब-सा छाँटता, उसे थानेदारी अंदाज में धमकाया हुआ आगाह करता था कि बेट्टा, हमें अपने जैसा आम आदमी मत समझ लेना। लेखक एक विशिष्ट जन है, यह सिद्ध करने के लिए ऐसे फोटो काफी थे। वैसे हाथ पर ठुड्डी रखकर कितनी देर ठीक-ठाक चिंतन किया जा सकता है, यह अपने आप में चिंता का विषय हो सकता है। मैंने तो रखकर देखा। पहले तो ठुड्डी पर उगी दाढ़ी के पैने बाल ही गड़ने लगे, और सारा ध्यान उस तरफ ही चला गया। फिर हाथ दर्द करने लगा। फिर भी मैंने गंभीर चिंतन की जी-तोड़ कोशिश जारी रखी, तो गर्दन टेढ़ी होने लगी। एकमात्र गंभीर या जैसा भी कहिए वैसा विचार जो इस प्रकार बैठकर मेरे मन में आया, वह यही था कि यार, कब तक ऐसा बना बैठा रहेगा तू - ठीक से क्यों नहीं बैठता? और यह रोना मुँह क्या बनाए हैं तू?

बाप मर गया क्या? बात क्या है? उदास क्यों है? यह गंभीरता का क्या चक्कर है? तो मेरे से तो नहीं सधा। पर मैंने देखे हैं ऐसे हिंदी के पुरोधा, जो घंटों ऐसे ही पोज में बैठे-बैठे पूरी गोष्ठी निकाल देते हैं। वे न केवल ऐसी सायास मनहूसियत ओढ़ते हैं, वरन लगातार चौतरफा देखते रहते हैं कि आस-पास वाजिब असर हो रहा है या नहीं? और असर होता भी है। हिंदी साहित्य में यह नुस्खा अचूक है। असर होता ही है। लोग दूर से हाथ पर टिकी ठुड्डी या घुटनों तक लटक आए मुँह को देखकर ही बता सकते हैं कि इस गोष्ठी में कौन कितना बड़ा साहित्यकार है। यूँ भी ऐसी मुद्रा साधना आसान नहीं है। मेहनत तथा साधना लगती है। शुरू-शुरू में आप कुछ मिनटों तक ही ऐसा कर पाते हैं और थोड़ी देर बाद अपनी औकात अर्थात ही-ही, ठी-ठी पर आ जाते हैं। पर ज्यों-ज्यों हिंदी साहित्य में गहरे धँसते हैं, त्यों-त्यों आप इसे लंबे समय तक प्राणायाम की भाँति खींचना सीख जाते हैं। धीरे-धीरे आप पूरी गोष्ठी या सामारोह ही इसी मनहूसियत के साथ सफलतापूर्वक निकाल ले जाना सीख जाते हैं। फिर एक दिन वह भी आता है कि आपको मनहूसियत में ही मजा आने लगता है। तब आप हिंदी साहित्य के साथ सफलतापूर्वक निकाल ले जाना सीख जाते हैं। फिर एक दिन वह भी आता है कि आपको मनहूसियत में ही मजा आने लगता है। तब आप हिंदी साहित्य की एक अनिवार्य शर्त वह भी मानने लगते हैं कि आपको मनहूस होना ही होगा। साहित्य रचने और गंभीर रहने के बीच सीधा तार जोड़ लेते हैं आप। आपको डर लगने लगता है कि गंभीर नहीं रहे तो अच्छा साहित्य नहीं रच पाएँगे आप, या आपके रचे साहित्य को शायद कोई गंभीरता से लेगा नहीं। पहले आप गोष्ठियों, सार्वजनिक स्थानों तथा लोगों के सामने ही गंभीर रहते हैं ताकि लोग आपको अच्छा हिंदी लेखक मानें, परंतु फिर यह आपकी आदत हो जाती है। आप पूरे मनहूस हो जाते हैं और यही कारण है कि हिंदी साहित्यकारों की पत्नियाँ प्रायः हिंदी साहित्य के विरुद्ध हैं, जिसने उनके अच्छे खासे पति को ऐसा मातमी बना दिया।

हिंदी लेखकों के परिचय में प्रायः कहा जाता है कि अमुकजी हिंदी कहानी के (या कविता या नाटक या जिस भी विधा के फटे में वे अपनी डेढ़ टाँग फँसाये बैठे हों, उसके) गंभीर प्रणेता हैं। कैसे हैं वे? बड़े गंभीर हैं वे। वे गंभीरतापूर्वक कहानी लिख रहे हैं, सो महान हैं। उनका फोटो देखकर बच्चे माँ से चिपक जाते हैं और माँ 'उई माँ' करने लगती है। वे जो अभी गोष्ठी में पधारे, वे जो अभी कॉफी हाउस से निकले, वे जो अभी मुख्यमंत्री के बँगले में अपनी किताब की सरकारी खरीद का डौल जमाकर बाहर आए, वे जो अभी चोरी की रचना को फेरबदल कर अपनी बनाकर डाक के बंबे में डालकर पान की दुकान पर खड़े हुए, वे जो अपने समकालीन लेखक की अच्छी रचना पढ़कर जल-भुन गए और उसकी टाँग खींचने के लिए कूच कर रहे हैं, वे जो अपना सारा कचरा समेटकर ग्रंथावली के कचरेदान में डालने ले जा रहे हैं, वे जो पुरस्कारों के शिकार पर निकले हैं, वे जो उस कमेटी की बैठक से निकलकर इस कमेटी में बैठे ऊँघ रहे हैं, वे जो कस्बा-कस्बा हिंदी कहानी-कविता आदि की दुर्दशा का रोना फर्स्ट क्लास का किराया वसूलते तथा चेला-चाँटी पनपाते रोते घूम रहे हैं, वे जो हिंदी साहित्य के उदीयमान हैं, वे जो हिंदी साहित्य में मात्र शौकीन तबीयत के कारण घुसे हैं और इसे ताशपत्ती की भाँति मानते हैं, वे जो तुकबंद हैं, वे जो अपनी उसी कहानी-कविता या व्यंग्य को अपने चार अलग-अलग संकलनों में डालकर किताबों का ढेर तैयार कर रहे हैं, वे जो जहाँ-जहाँ भी जैसी भी 'हिंदी कर रहे हैं'- वे तथा ये, इन सबमें एक ही बात समान है कि ये सभी गंभीर हैं। हिंदी में तो भई, जो करना, गंभीर होकर करना। कुछ नहीं भी करना, तो गंभीर होकर ही करना। बिना महसूस दिखे हिंदी में गुजारा नहीं। बड़ा सरल-सा सिद्धांत है। मुँह लटकाए और रुआँसे होकर हिंदी साहित्य के दरवाजे की घंटी बजाइए। वे झाँकेंगे और मनहूसियत नापने का फीता आपके लटके मुँह पर लगाकर नापेंगे, फिर मुस्कराकर कहेंगे कि आइए, हिंदी साहित्य में पधारिए। बस, यही एक दुर्लभ क्षण होगा, जब वे मुस्कराएँगे। वरना तो एक सतत स्यापा है, जो हिंदी साहित्यकारों के बीच चल रहा है।


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